बॉलीवुडसामाजिक

12th Fail का हर किरदार चप्पलबाज क्यों है?

हाल में आई फिल्म 12th Fail पर एक समाजशास्त्रीय नजर डालते हैं। ये फिल्म पहली नजर में गरीबी से उबरकर ऊंचाई छूने और संघर्ष करके कामयाबी हासिल करने की कहानी लगती है, जिसमें हिंदी मीडियम का एक स्टूडेंट तमाम बाधाएं पार करके आईएएस अफसर बनता है. ये उत्साह और जोश बढ़ाने वाली फिल्म है, जो उम्मीद जगाती है. इसमें ये भी दिखाया गया है कि प्रेम किस तरह से कुछ कर दिखाने का जज्बा पैदा कर सकता है। ये फिल्म हार नही मानूंगा का संदेश देती है।

सिनेमा, कला, किताबें, गाने, ये सब समाज के दर्पण हैं. इनका असर दोतरफा है. ये सब समाज से प्रभावित हैं. पर इन सब माध्यमों का असर, समाज पर भी पड़ता है. खासकर सिनेमा का, क्योंकि इसके दर्शक ज्यादा हैं, और लोग अक्सर इसमें दिखाई गई बातों को, सच मान लेते हैं. फिल्मों का, फैशन और विचारों पर गहरा असर पड़ता है.

इस बात को ध्यान में रखते हुए हाल में आई फिल्म 12th Fail पर एक समाजशास्त्रीय नजर डालते हैं. ये फिल्म पहली नजर में गरीबी से उबरकर ऊंचाई छूने और संघर्ष करके कामयाबी हासिल करने की कहानी लगती है, जिसमें हिंदी मीडियम का एक स्टूडेंट तमाम बाधाएं पार करके आईएएस अफसर बनता है. ये उत्साह और जोश बढ़ाने वाली फिल्म है, जो उम्मीद जगाती है. इसमें ये भी दिखाया गया है कि प्रेम किस तरह से कुछ कर दिखाने का जज्बा पैदा कर सकता है. ये फिल्म हार नहीं मानूंगा का संदेश देती है.

12th fail फिल्म में एक किरदार है.  वो किरदार है, Main Lead मनोज शर्मा की दादी का. वो दादी जो अपने बेटे को तो क्रांति करने दूसरे शहर भेज देती है, लेकिन पीछे छूटे उसके परिवार, यानी बहु की दुश्मन है.

 

आम समझ के आम लोगों के लिए वो एक पॉजिटिव किरदार है, लेकिन इतनी शातिर है कि शायद आपको पता चले.

दादी को पति की पेंशन मिलती है. जब बेटे को क्रांति करने के लिए यानि suspension के against case लड़ने के लिए भेजती है, तो वो बार बार कहती है, कि खर्चे के लिए बहू को पेंशन का एक पैसा भी नही दूंगी.

बहु अपने पति को खूब रोकती है, कि परिवार कैसे चलेगा? लेकिन मां साथ देती है, और कहती है, जा लड़.

लेकिन फिर कहती है, पेंशन का एक पैसा नही दूंगी बहु को.

धीरे धीरे घर के हालात बुरे होते है, गाय तक बिक जाती है. फिर लगा सिर्फ dialogue है, लेकिन असलियत तब खुलती है, जब पोता, यानी खानदान का बेटा ग्रेजुएट हो जाता है. तब दादी खोलती है, पैसों का पिटारा. पोते को पेंशन के पूरे पैसे देकर कहती है, जा डीएसपी बन कर आ, दादा का नाम रोशन कर.

पोती के लिए उसने कुछ किया भी है, ये पता नहीं चलता।

मतलब चाहे बहु मर जाती, पैसे ना देती, खुद को बेच आती तो भी उस पर जी लेती लेकिन बहु और उसके परिवार की मदद ना करती. कुछ सास ऐसी ही होती है, जिनके लिए बेटा और पोता ही मायने रखते है. बहु, वो दूसरे घर से आई हुई होती है. मरे या कटे, घर चलाना उसका ही काम है.

बहुत लोग कहेंगे कि अच्छी फिल्म मे कमी निकालते हो. लेकिन यही सच है, कि जब ऐसा दिखाया जाएगा तो समाज की कोढ़ पर तो बात होगी ही. फिल्म मे बहुत हद तक सही दिखाया है. ऐसा होता भी है, लेकिन ऐसा क्यों होता है? उसका विश्लेषण ही समाज की व्यवस्था को दिखाता है.

इस फिल्म में मनोज शर्मा के बाप का किरदार, अपने ऑफिसर को चप्पल से पीटता है, दादी घर में रखी लाइसेंसी बंदूक़ से गोली चलाती है, एक पोता विधायक के चमचे को चप्पल से मारता है और दूसरा पोता यानी मनोज भी लाइब्रेरी में अपने बॉस को मारने के लिए लिए चप्पल उठा लेता है.

गरीब होकर भी चप्पल मारने की जो हिम्मत है, वही उनका जाति प्रिविलेज, यानी जन्मजात विशेषाधिकार है. इन्हें न विधायक का डर है, न अफ़सर का, न क़ानून का, न बॉस का.

दलितों या शूद्रों पर कितनी फिल्म बनी है, पर किसी में भी उन्होंने चप्पल से, बॉस या किसी अफ़सर को नहीं पीटा है. क्योंकि जातिगत कुंठा इतनी अंदर तक कमजोर बना कर चली गई, कि मन मसोस कर रह गए, दुख क्रोध को पी गए, लेकिन तथाकथित निचली जाति के कारण, अन्याय के खिलाफ चप्पल नहीं मार पाए. चप्पल मारने की क़ीमत भी उनके लिए अधिक है.

लेकिन 12th fail फिल्म के किरदार, सब को चप्पल से मार रहे है. उन्हें ना विधायक का डर ना पुलिस वाले का. ये जो हिम्मत है, वही इन्हें तथाकथित, ऊंची जाति के होने से मिली है. जिसे मनु ने लिखा और ब्राह्मणों ने पोषित किया.

सबसे ख़तरनाक,  ये डॉयलॉग है, “जा रहा हूं बताने, कि तुमने आईपीएस के बाप से पंगा लिया है.” देश की लगभग सभी समस्याओं की जड़ में यही है।

Related Articles

One Comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button